रायगढ़: मां के साथ पिता का भी दाईत्व निभाती थीं देवी नलिनी बहु… रिश्तों की ध्रुव तारा थी – आशा त्रिपाठी

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नलिनी बहू के जाने को अप्रत्याशित तो नहीं कहा जा सकता पर उनके जाने के बाद इसने विराट शून्य की कल्पना भी नहीं थी। उनके जाने की प्रतिक्रिया भिन्न भिन्न हो सकती है। उनके बेटे , बेटियों और बहुओं के लिए एक ममतामयी मां का जाना, उनके रिश्तेदारों के लिए एक उर्जा के श्रोत का छिन्न-भिन्न हो जाना और यदि उत्कल समाज की बात करें तो एक विशाल वट वृक्ष का धराशायी हो जाना है. एक ऐसे खालीपन का एहसास है जिसकी पूर्ति एक लम्बे अरसे तक नहीं की जा सकती। उनका व्यक्तित्व किसी की मां, पत्नी या अन्य किसी रिश्तों का मोहताज कभी नहीं रहा। उनका अपना एक संपूर्ण व्यक्तित्व था। बिरले होते हैं ऐसे व्यक्तित्व जिन्हें ना तो संघर्ष तोड़ पाता है और न ही सुख सुविधाओं का अहंकार। एक अपवाद स्वरूप थीं वह। कमोबेश पन्द्रह वर्ष में विवाह पश्चात् एक छोटी से परिवार से अपना दांपत्य जीवन शुरू करने वाली नलिनी बहू ने जिस विराट जिम्मेदारियों को क्रमशः निभाया, आज की पीढ़ी उसकी कल्पना तक नहीं कर सकती।

ऐसा नहीं था कि उन्होंने दुख के थपेड़े ना झेले हों। कहने को महज वे अपने परिवार की इकलौती बहू रही लेकिन चचेरे और ममेरे परिवार का रायगढ़ और उसके आसपास होने के कारण उन्हें विशाल ससुराली रिश्तों के निर्वाह करने का दायित्व भी मिला। पन्द्रह वर्ष की उम्र से अपनी अंतिम पड़ाव तक याने तकरीबन सत्तर वर्षों तक इन रिश्तों को निर्बाध रूप से संजोये रखना यह सिर्फ नलिनी बहू जैसी स्त्री कर सकती हैं। पारिवारिक रिश्तों के अलावे यदि सामाजिक रिश्तों की गणना की जाऐ तो शायद लेखनी भी थक जाऐगी उन्हें लिखते। पंडितदादा (स्व . विद्याधर मिश्रा) जितने अन्तर्मुखी रहे जीवन भर नलिनी बहू उतनी ही बहिर्मुखी थी। ऐसा नहीं रहा होगा कि जीवन के उतार चढाव के थपेड़ों ने उन्हें विचलित न किया हो लेकिन उसका आभास कभी चेहरे पर झलकने नहीं दिया।

आत्मसंतुष्टि का एक भाव हल्की सी मुस्कुराहट के रूप मे हमेशा उनके चेहरे पर तैरती रहती थी। त्रिपाठी परिवार के लाडले भान्जे की पत्नी होने के कारण हमारे परिवार से उनका विशेष लगाव था। मेरे मायके में भी उनका दर्जा बड़ी बहू का था। इस मायने में मेरा उनसे दोहरा रिश्ता भी रहा। आज उनकी संतानें जिस जगह भी है यदि सफल और सुयोग्य दिखलाई पड रहे हैं तो इसका श्रेय उनकी मां को ही है। यहां यह बताना होगा कि पेशेगत व्यस्तता के चलते पंडितदादा यह तक नहीं जानते थे कि उनके बच्चे किस कक्षाओं में हैं । उन परिस्थितियों मे नलिनी बहू को एक मां की भूमिका के अलावे एक हद तक पिता की भूमिका भी निभानी पड़ती थी । अद्भुत तालमेल रहा दोनों में शायद मणिकंचन सा आज यदि वह मेरी लिखी बातें पढ़ रही होती तो अपनी उपलब्धियों को सिरे से खारिज कर देती । आप जानते क्या जवाब होता उनका “ऐहर सब पुरखा और बड़े मन के आशीर्वाद हे आशा”। ऐसी थी नलिनी बहू।

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