रायगढ़ टाईम्स विशेष

छत्तीसगढ़: आखिर किसके लिए शहीद होते है जवान.?,शहादत की कोई कद्र नही है हमारे देश मे..13 साल बीत जाने के बाद भी कोई सरकारी मदद नही मिली,न ही कोई हालचाल जानने आया,छलकती आंखों से रानिबोदली नक्सल हमले में शहीद जवान की धर्मपत्नि ने बताई आपबीती….

धीरेन्द्र भाई / नितिन सिन्हा

बीजापुर/कोरिया- रानीबोदली दक्षिण बस्तर का वो सबसे दुर्दांत इलाका है,जो बीजापुर जिला मुख्यालय से करीब 50 किमी दूर घने जगलों के बीच टापू नुमा क्षेत्र है। जहां 15 मार्च 2007 को सलवा जुडूम आंदोलन के दौरान एक स्कूल भवन में बनाए गए पुलिस आउट पोस्ट पर जिंसमे करीब 56 की संख्या में पुलिस जवान(एस ए एफ/spo) तैनात थे।। यहां रात करीब एक बजे नींद में गाफिल जवानों पर 500 से ज्यादा हथियार बन्द नक्सलियों ने पूरी तरह से मोर्चा बन्दी कर सुनियोजित बड़ा हमला किया था। नक्सलियों ने हमले के दौरान कैम्प में तैनात सभी 55 पुलिस जवानों की नृशंस हत्या कर दी थी। इन शहीद पुलिस जवानों में एक जवान कोरिया जिले के मनेंद्रगढ़ शहर के झगराखांड कस्बे का रहने वाला था। जवान का नाम ब्रिज भूषण लाल श्रीवास्तव था। बृजभूषण का जन्म 8 सितम्बर 1970 दिन गुरुवार को हुआ था। इत्तेफाक से रानिबोदली हमले में उनके शहीद होने का दिन भी गुरुवार ही था। करीब 36 वर्षीय बृजभूषण छ ग पुलिस में एस ए एफ के बहादुर जवान थे। आपने हमले में शहीद होने से पहले बर्बर नक्सलियों के सांथ घण्टों जांबाज़ी से सघर्ष किया था। बताया जाता है कि इस हमले के महज दो दिन पहले जब अपने घरों से सैकड़ों कि मी दूर बीहड़ में स्थित गांवों वालों के सांथ पुलिस जवानों ने होली का त्योहार मनाया था। उस दिन ग्रामीणों की वेशभूषा में बड़ी संख्या में नक्सली मुखबिर भी शामिल हो गए थे। उन्होंने इस दौरान पूरे पुलिस कैम्प की रेकी कर ली थी।

जिसके बाद माओवादियों ने कुछ ग्रामीणों के सहयोग से 15 मार्च 2007 को देश के पहले सबसे बड़े नक्सली हमले को अंजाम दिया था । यह हमला इतना भयावह था कि कैम्प में तैनात लगभग सभी 55 जवान शहीद हो गए थे,वही जवानों की जवाबी कारवाही में भी 9 -10 हमलावर नक्सली भी मारे गए थे। हमले की भयावहता को याद करके आज भी यहां के अधिकांश ग्रामीण और तब के बच्चे और आज के युवा पूरी तरह से सिहर उठते हैं। एक सांथ पुलिस के 55 जवानों की शहादत का मंजर इतना भयावह था कि तत्कालीन छ ग की संवेदनहीन सरकार को छोड़कर बाकी पूरे प्रदेश के लोगों की आंखें नम हो गई थी। जिन लोगों ने इस हमले को अपनी आंखों देख था वे लोग आज 13 साल बाद भी इस सदमे से खुद को बाहर नही निकाल पाए हैं।

दूसरी तरफ हमारी सरकारों के ढुलमुल रवैये के कारण राज्य में आगे भी नक्सलवादी हिंसा पर अंकुश नही लग पाया। जिसका परिणाम यह हुआ कि महज कुछ महीनों और सालों में ही नक्सलियों ने राज्य में एक के बाद एक करके लगभग एक दर्जन से अधिक बड़े हमले किए। *इनमे 12 जुलाई 2009 राजनांदगांव जिले में मानपुर नक्सल हमला,जिंसमे नक्सलियों ने 29 पुलिस जवानों की हत्या करने के अलावा उनके हथियार लूट लिए थे। फिर लुटे हुए उन्ही हथियारों के बल पर नक्सलियों ने 6 अप्रैल 2010 को ताड़मेटला में 76 जवानों को मार डाला था। नक्सली हमलों का यह सिसलिला आगे भी जारी रहा 17 मई 2010 को जब जवान दंतेवाड़ा से सुकमा जा रहे थे तब जवानों से भरी वाहन पर नक्सलियों की बारूदी सुरंग से हमला कर दिया था। इस हमले में 12 पुलिस अधिकारियों सहित 36 पुलिस जवानों की हत्या करने में वो सफल हुए थे। यही नही नक्सलियों ने 29 जून 2010 को नारायणपुर जिले के धोड़ाई में सीआरपीएफ के जवानों पर हमला कर पुलिस के 27 पुलिस जवानों को मार डाला था।* आज भी हालात ऐसे बने हुए हैं कि नक्सली जब चाहें जहां चाहें पूरी बर्बरता से हमले कर रहे हैं। बीजापुर जिले के तररेम थाना क्षेत्र में घटी घटना इस बातबका प्रमाण है कि आज माओवादियों की सक्रियता का दायरा थोड़ा सिमट जरूर गया है। परन्तु उनकी आक्रमता और बर्बरता दोनों पूर्ववत बनी हुई है।

*तमाम नक्सली हमलों को लेकर सरकार न तो अब तक कोई सफल रणनीति बना पाई न ही शहीद जवानों के प्रति सरकार की संवेदना जागी..*

वही रानीबोदली हमले के बाद 13 सालों तक प्रदेश में एक तरफ शांति बहाली के प्रयासों को लेकर हमारी पुलिस और अर्धसेना के जवानों की लगातार शहादतें होती रही। तो दूसरी तरफ सरकार शहादत की हर घटनाओं पर निंदा और दिखावे का शोक व्यक्त कर खाना पूर्ति करने में लगी रही। जबकि प्रशासन घटना के बाद किसी तरह से शहीदों का शव उनके घर तक पहुंचाकर, अंतिम संस्कार करवाने के बाद बाकी जिम्मेदारियों से खुद को अलग करता रहा।

क्या शांति बहाली और सरकारी विकास की दोहरी जिम्मेदारी अपने कंधे उठाये शहीद जवानों के परिजनों को इस तरह नजर अंदाज करना उचित कहा जा सकता है ? जिनकी शहादत के दम पर हम सभी देश-प्रदेशवासी आज खुशी और चैन की जिन्दगी जी रहे हैं। परन्तु बदले में हमारी सरकार और उसका सिस्टम शहीद जवानों के परिजनों के सांथ कैसा व्यवहार कर रहा है.? यह समझा जाना जरूरी है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करती यह पोस्ट अवलोकनीय है…

आज हम बात कर रहे है ऐसे ही एक शहीद जवान के परिवार की जिनकी जिंदगी जीने का एक मात्र सहारा अपनी मातृभूमि में शांति बहाली का प्रयास करते हुए 15 मार्च 2007 को बीजापुर जिले के रानीबोदली नक्सल हमले में शहीद हो गया था । मेरा यकीन है कि उनकी शहादत के तुरंत बाद से लेकर आज तक इस शहीद परिवार को सम्मान से जीने के लिए किस स्तर का संघर्ष करना पड़ा उसे सुन पढ़कर आप खुद को देशभक्त कहना छोड़ देंगे।।

कोरिया जिले के झगड़ाखांड में एक ऐसे ही शहीद का परिवार निवास करता है,जो अपने ही शहर में सम्मान जनक जीवन जीने के लिए आज भी कड़ा संघर्ष कर रहा है।। हालांकि इस परिवार को सरकारी संतावना तो काफी बार दी गई लेकिन इस परिवार को जब भी वास्तविक मदद की जरूरत पड़ी तो उनके लिए शासन-प्रशासन तो दूर कोई जनप्रतिनिधि भी कभी कोई सामने नही आया।।

इसी बीच हमारे अनुभवी पत्रकार मित्र धीरेंद्र कुमार 74 वें स्वतन्त्रता दिवस के दो दिन पहले इस शहीद परिवार के घर उनका हाल-चाल जानने पहुँचे।। तो उनके सामने शहीद जवान की पत्नी की आँखें आसुंओं से डबडबा गई। इसी हाल में उन्होंने अपनी पीड़ा पत्रकार महोदय को सुनाई । शहीद की पत्नी आप-बीती बताते हुए कहने लगी कि हमारे पति सी ए एफ के बहादुर जवान थे। जो 15 मार्च 2007 को रानिबोदली नक्सल हमले में शहीद हो गए थे। इनकी मौत के उपरांत भी अपने शहीद पति के शव लेने के लिए भी उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। इसके बाद आज भी शासन-प्रशासन की तरफ से हमारे परिवार को ऐसी कोई भी सुविधा नही दी गई । जिससे कि हम अपने दोनों बच्चों को सही ढंग से पालन पोषण कर पाते । शहीद की पत्नी ने बताया कि विभाग और शासन में बैठे बड़े अधिकारी और जनप्रतिनिधि यहां तक कि जिला प्रशासन के द्वारा भी मेरे पति की शहादत के बाद भी कोई सम्मानजनक मदद या व्यवहार उनके सांथ नही किया गया। जिसे लेकर हमारे मन मे गहरी पीड़ा है.? क्या इस तरह बदसलूकी और अकेले संघर्ष करने के लिए ही हमारे अपने लोग आप लोगो के लिए शहीद होते है.? उनकी शहादत बाद प्रशासन ने गैस एजेंसी व मकान बना कर देने का आश्वासन तो दिया था। परंतु न तो कोई बात आगे बढ़ी, न ही इतने वर्ष बीत जाने के बाद हमें किसी भी प्रकार की कोई मदद मुहैया कराई गई।

आज तक मैं अपने दो बच्चों के साथ अपने 85 वर्षीय बुजुर्ग बीमार पिता के साथ किसी तरह गुजर-बसर करती रही हूं,आज भी मैं उतनी ही मजबूर हूँ। शासन-प्रशासन के लोग 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन हमारे पास आकर कार्यक्रम में शामिल होने का फरमान देकर कार्यक्रम स्थल में घण्टों भूखे-प्यासे बैठकर मात्र एक शाल और नारियल देकर हमें वापस भेज देते हैं। बस फिर साल के बाकी दिनों में कोई झांकने तक नही आता है।।

इधर शहीद की पत्नी के भाई दीपक श्रीवास्तव ने जो बात बताई वह बेहद शर्मनाक है। दीपक कहते है मेरे बहनोई के शहीद होने की खबर आने के दूसरे दिन जब हम उनका पार्थिव शरीर लेने जिला मुख्यालय कोरिया गए,तब भी तत्कालीन पुलिस अधीक्षक और सूबेदार ने हम परिजनों से ऐसा दुर्व्यवहार किया था जो आज भी हमें भुलाए नही भूलता है।। सूबेदार ने कहा था कि जब डेथ बॉडी आएगी हम तुम्हें सौंप देंगे,हमने कोई ठेका नही ले रखा है। दो दिन हम यहाँ वहां कर दिन गुजारे फिर जब शहीद का शव आया तो तत्कालीन चरचा चौकी प्रभारी ने हम परिजनों को शव देंखने से यह कर मना कर दिया कि अगर तुम लोग जिद करोगे तो शव को वापस बीजापुर भेज दिया जाएगा। हम अपमानजनक बातें सुनकर चुप रह गए। जबकि पुलिस विभाग और प्रशासन से इतर आम जनों ने हमारी तब बहुत मदद की। तब से लेकर आज तक दीदी ने बहुत संघर्ष किया है जो आज भी जारी है। उसने जीवन जीने के लिए सरकारी जमीन पर कई वर्ष पूर्व में बनी दुकानों के बीच एक जगह छोटी सी दुकान खोली थी,जिसे तत्कालीन sdm रेणुका श्रीवास्तव के कहने पर तोड़ दिया गया था। परन्तु बाकी दुकानें आज भी यथावत हैं। अभी हाल ही में उनकी भांजी को पिता की जगह सरकारी नौकरी मिली है। परन्तु 13 साल तक सिर्फ बहनोई के शहीद होने के बाद जो तत्कालीन सहायता राशि मिली थी उसके अलावा प्रशासन से उन्हें कोई और सहयोग या सम्मान नही मिला।। लगता है इस बात की पीड़ा हमारे साथ ही ऊपर जाएगी।। आज भी किसी जवान के शहीद होने की खःबर हम तक आती है तो पूरा घटना क्रम हमारे सामने घूम जाता है।।

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